Kavitanjali by Dr Ram Lakhan Prasad - HTML preview

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अरम न

हम र यह वदि न उम्मीद त नही ां है र्र ह ूँ थ ड़ न क म जरर ह ज त है, इस जीिन क सिर थ ड़ िम्ब है त र्गम भी थ मर्गर आर म वमि ज त है

मेरे जीिन क सिर कुछ कुछ कवठन ईय ां से भर थ मर्गर उद सी नही ां थी

सिि हमसफ़र के तरह हम चिते रहे और बहुत कुछ स च वफ़क्र नही ां थी |

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जन्म बीत र्गए बैठे बैठे

करौन मह म री के झर्ेट में स री दुवनय के ि र्ग हैर न ह र्गए

वदन बीत , महीने बीते, द िर्षों के बहुमयल्य समय भी बीत र्गए

वकतने मौसम अब बीत र्गए हैं मौज ां की दुवनय से दयर ह र्गए

ि र्ग हम रे अर्ने ही धुन में थे उनके प्य र क नयन तरस र्गए

आूँख ां की चमक धयवमि ह र्गए और क न से सुनन भी भयि र्गए

बन ठन के सैर सर् ट करन थ र्र नए कर्डे सब मैिे ह र्गए

अर्न ां से वमिने क मन तरस र्गए नए सयटबयट की च हत िर्गे रहे

मन मौज उड़ ने क तड़र् रहे अब घर र्र बैठे तम श देख रहे

कब ज ने क वमिेर्ग मन स च रहे र्यरब से सयरज र्वश्चम क र्गए

वनतठुर मन स च रह घर बैठ के ऐस करते करते जन्म बीत र्गए

कब ज येर्गी यह मह म री हम सब इस के प्रक र् से अब थक र्गए

कृष्ण जन्म ष्ट्मी र्िप म नि द स्त ां श्री कृष्ण हम रे इर दे समझ र्गए

कांस रुर्ी मह म री क अांत करेंर्गे कनहैय हम री अब म न र्गए

हम रे देश ां के वचवकत्सक ां ने िैक्सीन क ख जे सब क म बन र्गए

थ ड़े वदन अर्ने घर बैठ अर्ने ि र्ग ां क बच ओ और खुद भी बच

जब चिी ज येर्गी यह मह म री तब घर से वनकि और न च कयद

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मेरी कह नी मेरी जुब नी

आज विरसे मैं अर्ने र्गुरुजन और बुजुर्गों के कुछ बहुमयल्य सीख की

चच प कर रह हूँ

द स्त ां जर ध्य न से र्वढ़ए और सुवनए ज मैं आज इस कवित में

कहने ज रह हूँ

अर्ने इस जीिन के सिर में ज कुछ भी करन है त डटकर करन

सीक्तखए य र

इस वजांदर्गी में बहुत अच्छे ि र्ग वमिेंर्गे हमक र्र बुरे ि र्ग ां से हटके